आज
वसुंधरा एक ऐसे देदीप्यमान आदित्य का अवतरण दिवस मना रही है जिनका जीवन आज
किसी भी सत्यान्वेषी के लिए अनुकरणीय हो सकता है| गुरु के प्रति अपार एवं
अटूट श्रद्धा, अध्यात्म के प्रति सम्पूर्ण समर्पण, सरल-सादा जीवन, मानव
मात्र के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करने हेतु अपना जीवनोत्सर्ग – ये मानव
चरित्र की कुछ ऐसी अद्भुत् व उदात्त विशिष्टतायें हैं जो व्यक्ति को
अनुकरणीय, आदरणीय और पूज्य बना देती हैं | "सम्पादक बाबा" के नाम से
लोकप्रिय एक ऐसी ही महा विभूति आज से ठीक 89 वर्ष पूर्व इस धरा पर अवतीर्ण
हुई थी जिन्हें आज विश्व “स्वामी अच्युतानन्द जी महाराज” के नाम से जानता
है | बिहार प्रान्त के पूर्णिया जिले के पावन ग्राम कुशहा निवासी पूज्या
श्रीमती हाहो देवी और आदरणीय श्री झकसू सिंह जी के यहाँ २ फरवरी १९२८ को एक
अनमोल लाल ने माँ वसुधा के हृदय को आह्लादित करने वाला मनोहारी
नवजात-क्रंदन किया था। शिशु का नाम अभिभावकों द्वारा “अधिक लाल दास” रखा
गया | किसे पता था कि यह बालक एक दिन इतना प्रतिभाशाली होगा कि इसे पिछली
सदी के महानतम संतों में शुमार परमाराध्य महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज
स्वयं मासिक आध्यात्मिक पत्रिका “शान्ति सन्देश”, जिसकी स्थापना स्वयं
उन्होंने ही की थी, के सम्पादन का गरिमामंडित उत्तरदायित्व सौंपेंगे !
इन्होंने इस गुरुतर कार्य का सम्पादन गुरु महाराज के महाप्रयाण
(२८.०८.१९८६) के सात वर्ष उपरान्त १९९३ ई. तक पूरी निष्ठा से किया | बालपन
से ही इनमें एक मुमुक्षु के स्वाभाविक लक्षण विद्यमान थे| किशोरावस्था में
इनके हृदय में हिलोड़े रहे देशभक्ति के जज़्बे ने इन्हें एक बार कारागार में
भी पहुँचा दिया| पर वहाँ भी लोगों को इनमें प्राणी-मात्र के प्रति करुणा के
भाव स्पष्टत: परिलक्षित हुए जब इन्होंने निरपराध – निस्सहाय प्राणी की
स्वाद-तुष्टि हेतु हिंसा का दबंग लोगों के सामने भी सशक्त एवं निर्भीक्
प्रतिकार किया|.
१९४७ न सिर्फ हमारे राष्ट्र के राजनीतिक स्वातन्त्र्य का अपितु इनके निजी आध्यात्मिक मुक्ति-पथ पर पदार्पण का भी वर्ष सिद्ध हुआ| निकट के ही एक गाँव में परमाराध्य महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज के शुभागमन के संवाद ने इन्हें असहज, बेचैन कर दिया और एक अज्ञात आतंरिक प्रेरणा से आकर्षित हो ये उनके सान्निध्य में जा पहुँचे और उनसे दीक्षा देने का सविनय आग्रह किया| पर, दीक्षा मिलनी इतनी सरल न थी। गुरु महाराज ने इन्हें पहले सन्तमत के सिद्धान्त और परिभाषा को समझ कर और याद कर पुन: आने को कहा| ये वापस आये और तनिक भी हतोत्साहित हुए बिना कुछ कालोपरांत, यद्यपि ये सन्तमत के गूढ़ सिद्धांतों को अभी भी स्पष्टत: नहीं समझ पाए थे, उनकी सेवा में पुन: उपस्थित हुए | इस बार गुरु महाराज ने इनकी उत्कट मुमुक्षा से प्रसन्न हो बिना कुछ पूछे इन्हें दीक्षा प्रदान करने की कृपा की| और, मात्र तेरह वर्षों के अंदर इन्हें नाद-साधना का रहस्य भी १९६० में बतला दिया |
इन्हें गुरु-सेवा एवं सान्निध्य का तीन दशकों से अधिक का सौभाग्य प्राप्त हुआ | इस दौरान कई महत्वपूर्ण, जटिल और जिम्मेदारी से भरे कार्य गुरु महाराज इन्हें सौंपते और ये वज्रांग हनुमान जी की नाईं उनका नाम स्मरण कर उसे पूरा करने के अभियान पर निकल पड़ते, यद्यपि कई बार, ये बतलाते हैं, इन्हें स्वयं पता न होता कि वह कार्य इनसे किस प्रकार संपन्न हो पायेगा, और अपनी कर्मठता, कल्पनाशीलता और गुरु-कृपा के फलस्वरूप सफल होकर ही लौटते | गुरु महाराज इनसे संतवाणी का पाठ भी करवाते और इन्हें प्रवचन करने भी कहते | पाठ में अशुद्धियाँ होने पर इन्हें यदा-कदा फटकार भी मिलती | फिर, गुरु महाराज पूज्य संतसेवी जी को पाठ करने कहते | अगले दिन इन्हें बुलाकर फिर पाठ करने को कहते| इस प्रकार गुरु महाराज ने इन्हें अपने हाथों गढ़ा और खरा सोना बना दिया | और हो भी क्यों न ? गुरु में अटूट विश्वास और अपार श्रद्धा जो थी ! लोग मात्र कथन में गुरु को अपना माता और पिता बताते हैं | पर मैंने एक अनूठा नमूना देखा है इनकी गुरु-भक्ति का! एक बार आरक्षण कराने के सिलसिले में मैंने इनसे इनका इलेक्शन कार्ड (मतदाता पहचान पत्र) माँगा | मैं दंग और पूर्णत: स्तंभित रह गया जब मैंने देखा कि इनके कार्ड में इनके पिता के नाम के स्थान में लिखा था – “महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज” !!!!! सम्पूर्ण समर्पण का इससे अद्भुत नमूना शायद ही देखने में आया हो|
गुरु महाराज इन्हें इतना प्यार करते थे कि एक बार इन्हें नापसंद करने वालों ने इन्हें शान्ति सन्देश के पद से हट जाने को कहा| ये निर्लोभी थे| सहर्ष तैयार हो गए| पर इससे पहले कि ये अपना कार्यभार सौंप पाते, सर्वज्ञ गुरु महाराज ने उनमें से एक को बुलाकर कड़ी फटकार लगाई और कहा, “आपलोग उन्हें सम्पादक पद से हटाना चाहते हैं? अरे, जब तक इस ठट्ठर में प्राण शेष हैं, कभी नहीं, कोइयो नहीं कर पाइएगा!” उनके मंसूबे धरे के धरे रह गए |
ये बताते हैं कि जब इन्होंने दीक्षा ली थी, इनके ग्राम में एक भी सत्संगी परिवार न था। पर इन्होंने गुरु कृपा का आह्वान अपार धैर्य सहित अपने ग्रामवासियों को समझाना प्रारम्भ किया और शनैः शनैः, गुरु महाराज के ज्ञान और इनके समझाने की अनुपम शैली से प्रभावित होकर, इनका पूरा गाँव सन्तमत में दीक्षित हो गया।
इनकी निस्पृहता और निःस्वार्थता विस्मयकारी है। आज सब लगभग समस्त मानवता, जिससे साधु समाज का एक वर्ग भी अछूता नहीं रहा है, चल-अचल संपत्ति के उपार्जन के पीछे लगी हुई है, वहीं इन्होंने अपनी निवास-भूमि भी दान कर दी है और उसपर सत्संग भवन का निर्माण करवाया दिया है जिससे आज समस्त ग्रामवासी तथा क्षेत्र के अन्य सत्संगी भी लाभान्वित होते हैं।
गुरु महाराज के महाप्रयाण के बाद मैंने अपनी आँखों से देखा कि उनके सुयोग्य उत्तराधिकारी महर्षि संतसेवी परमहंस जी स्वयं इन्हें कितना मान देते थे | साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर जब सत्संग प्रशाल में महर्षि संतसेवी जी का आगमन होता और उस समय इनका प्रवचन चल रहा होता और माइक महर्षि संतसेवी जी के समक्ष लाया जाता, तो वे अपना प्रवचन शुरू करने के पहले इनसे कहते “पुराइये” (पूरा कीजिये) और इनके आगे माइक रखने का निर्देश देते | समय-समय पर इन्हें बुलाकर इनसे इनका हालचाल एवं कुशल समाचार पूछा करते| कभी-कभी अपने चौके में इन्हें हठात्, इनके मना करने के बावजूद, भोजन करवाते |
आज पूज्य शाही बाबा और पूज्य दलबहादुर बाबा हमारे मध्य नहीं हैं| वर्तमान में ये ९०वें वर्ष में, संभवतः, सबसे उम्रदराज शिष्य हैं गुरुमहाराज के | सरलता और प्रगल्भता एक साथ देखी जा सकती हैं इनमें | मान का जरा सा भी लोभ नहीं | लोगों ने इन्हें उपाधि विशेष (महर्षि) से नवाजना चाहा तो इन्होंने दृढ़तापूर्वक मना कर दिया | जब ये हँसते हैं तो प्रतीत होता है मानो एक निर्दोष शिशु किलकारियां भर रहा हो | छोटे-छोटे बच्चे इनके सान्निध्य में एक अजीब-सी सहजता महसूस करते हैं और अति शीघ्र इनसे घुल-मिल जाते हैं | स्निग्घता ऐसी कि इनके सामीप्य में आकर आश्वस्तता का अनुभव होता है | अपनी इस आयु में भी अध्ययन और लेखन के प्रति इनका लगाव और उत्साह जरा भी कम नहीं हुआ है | लगभग बीस पुस्तकें लिख चुकने के बाद भी इनका जोश बिलकुल वैसा ही है जैसे ये अपने पहली रचना लिखने जा रहे हों | इनकी एक पुस्तक “विन्दु-नाद ध्यान” का मराठी और अंग्रेजी में अनुवाद हो चुका है | एक अन्य पुस्तक “नवधा भक्ति” का मराठी अनुवाद भी शीघ्र ही प्रकाशित होने को तैयार है | अभी हाल ही में, इन्होंने अपने गुरु महाराज की जीवनी "महर्षि मेँहीँ चरितामृत" लिखी है| और कितनी अच्छी बात है ये! आदरणीय डॉक्टर सत्यदेव साह जी द्वारा जब गुरु महाराज की जीवनी लिखी गयी तो गुरु महाराज सशरीर विद्यमान थे और उनके जीवन का एक हिस्सा रह गया था जिसके बारे में कुछ नहीं लिखा गया था | इनकी ये पुस्तक न मात्र एक प्रामाणिक दस्तावेज है अपितु उस अभाव की पूर्ति भी करेगी | इन्हें कोटिशः धन्यवाद! गुरु महाराज के महत्वपूर्ण उपदेशों को इन्होंने "महर्षि मेँहीँ गीता" के रूप में संकलित किया। परमाराध्य गुरु महाराज के सुयोग्य शिष्य एवं उत्तराधिकारी महर्षि संतसेवी परमहंस के जीवन के उल्लेखनीय पहलुओं को एकत्र कर उनकी संक्षिप्त जीवनी भी लेखनीबद्ध की। इनकी प्रथम पुस्तक "संतमते की बातें" संतमत के सार सिद्धान्तों एवं शिक्षाओं का अद्भुत् संकलन है। गुरु और गुरु दीक्षा के महत्त्व को रेखांकित करते हुए इन्होंने "बन्दौं गुरु पद कञ्ज" नामक विलक्षण पुस्तक की रचना की। "नवधा-भक्ति" नाम्नी पुस्तिका में इन्होंने सन्तमत साधना पद्धति का उल्लेखनीय वर्णन किया है। "सत्संग-भजनावली" इनके द्वारा निष्पन्न प्रमुख संतों के गेय भजनों का संकलन है।
इस वृद्धावस्था में इनके कानों ने काम करना बंद कर दिया है | पर इससे बिल्कुल बेखबर इन्होंने अपने शरीर को झोंक दिया है उस महायज्ञ में, उस उदात्त उद्देश्य हेतु जो संतों का सहज स्वाभाविक गुण होता है – “संत सहहिं दुःख परहित लागी”| ये शरीर यदि लोकोपकार में काम आ सके तो इससे बेहतर उपयोग इसका और क्या हो सकता है – सड़ना और झड़ना तो इसने यूँ भी है! आज हम सबों का अपार और अप्रतिम सौभाग्य है कि ऐसे महामानव के दर्शन, स्पर्शन, उपदेशन हमें सरलता से प्राप्त हो रहे हैं! परमाराध्य गुरु महाराज के त्रयलोक पावनकारी पाद-पद्मों में यही विनती सच्चे हृदय से कि इन्हें अच्छी सेहत और दीर्घ आयु एवं अक्षय यश प्रदान करें कि इनका संसर्ग व उपदेश अधिक से अधिक समय तक हमें तथा समस्त मानवता को प्राप्त हो सके | जय गुरु ! जय गुरु ! जय गुरु
Author : Swami Swarupanand Baba
१९४७ न सिर्फ हमारे राष्ट्र के राजनीतिक स्वातन्त्र्य का अपितु इनके निजी आध्यात्मिक मुक्ति-पथ पर पदार्पण का भी वर्ष सिद्ध हुआ| निकट के ही एक गाँव में परमाराध्य महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज के शुभागमन के संवाद ने इन्हें असहज, बेचैन कर दिया और एक अज्ञात आतंरिक प्रेरणा से आकर्षित हो ये उनके सान्निध्य में जा पहुँचे और उनसे दीक्षा देने का सविनय आग्रह किया| पर, दीक्षा मिलनी इतनी सरल न थी। गुरु महाराज ने इन्हें पहले सन्तमत के सिद्धान्त और परिभाषा को समझ कर और याद कर पुन: आने को कहा| ये वापस आये और तनिक भी हतोत्साहित हुए बिना कुछ कालोपरांत, यद्यपि ये सन्तमत के गूढ़ सिद्धांतों को अभी भी स्पष्टत: नहीं समझ पाए थे, उनकी सेवा में पुन: उपस्थित हुए | इस बार गुरु महाराज ने इनकी उत्कट मुमुक्षा से प्रसन्न हो बिना कुछ पूछे इन्हें दीक्षा प्रदान करने की कृपा की| और, मात्र तेरह वर्षों के अंदर इन्हें नाद-साधना का रहस्य भी १९६० में बतला दिया |
इन्हें गुरु-सेवा एवं सान्निध्य का तीन दशकों से अधिक का सौभाग्य प्राप्त हुआ | इस दौरान कई महत्वपूर्ण, जटिल और जिम्मेदारी से भरे कार्य गुरु महाराज इन्हें सौंपते और ये वज्रांग हनुमान जी की नाईं उनका नाम स्मरण कर उसे पूरा करने के अभियान पर निकल पड़ते, यद्यपि कई बार, ये बतलाते हैं, इन्हें स्वयं पता न होता कि वह कार्य इनसे किस प्रकार संपन्न हो पायेगा, और अपनी कर्मठता, कल्पनाशीलता और गुरु-कृपा के फलस्वरूप सफल होकर ही लौटते | गुरु महाराज इनसे संतवाणी का पाठ भी करवाते और इन्हें प्रवचन करने भी कहते | पाठ में अशुद्धियाँ होने पर इन्हें यदा-कदा फटकार भी मिलती | फिर, गुरु महाराज पूज्य संतसेवी जी को पाठ करने कहते | अगले दिन इन्हें बुलाकर फिर पाठ करने को कहते| इस प्रकार गुरु महाराज ने इन्हें अपने हाथों गढ़ा और खरा सोना बना दिया | और हो भी क्यों न ? गुरु में अटूट विश्वास और अपार श्रद्धा जो थी ! लोग मात्र कथन में गुरु को अपना माता और पिता बताते हैं | पर मैंने एक अनूठा नमूना देखा है इनकी गुरु-भक्ति का! एक बार आरक्षण कराने के सिलसिले में मैंने इनसे इनका इलेक्शन कार्ड (मतदाता पहचान पत्र) माँगा | मैं दंग और पूर्णत: स्तंभित रह गया जब मैंने देखा कि इनके कार्ड में इनके पिता के नाम के स्थान में लिखा था – “महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज” !!!!! सम्पूर्ण समर्पण का इससे अद्भुत नमूना शायद ही देखने में आया हो|
गुरु महाराज इन्हें इतना प्यार करते थे कि एक बार इन्हें नापसंद करने वालों ने इन्हें शान्ति सन्देश के पद से हट जाने को कहा| ये निर्लोभी थे| सहर्ष तैयार हो गए| पर इससे पहले कि ये अपना कार्यभार सौंप पाते, सर्वज्ञ गुरु महाराज ने उनमें से एक को बुलाकर कड़ी फटकार लगाई और कहा, “आपलोग उन्हें सम्पादक पद से हटाना चाहते हैं? अरे, जब तक इस ठट्ठर में प्राण शेष हैं, कभी नहीं, कोइयो नहीं कर पाइएगा!” उनके मंसूबे धरे के धरे रह गए |
ये बताते हैं कि जब इन्होंने दीक्षा ली थी, इनके ग्राम में एक भी सत्संगी परिवार न था। पर इन्होंने गुरु कृपा का आह्वान अपार धैर्य सहित अपने ग्रामवासियों को समझाना प्रारम्भ किया और शनैः शनैः, गुरु महाराज के ज्ञान और इनके समझाने की अनुपम शैली से प्रभावित होकर, इनका पूरा गाँव सन्तमत में दीक्षित हो गया।
इनकी निस्पृहता और निःस्वार्थता विस्मयकारी है। आज सब लगभग समस्त मानवता, जिससे साधु समाज का एक वर्ग भी अछूता नहीं रहा है, चल-अचल संपत्ति के उपार्जन के पीछे लगी हुई है, वहीं इन्होंने अपनी निवास-भूमि भी दान कर दी है और उसपर सत्संग भवन का निर्माण करवाया दिया है जिससे आज समस्त ग्रामवासी तथा क्षेत्र के अन्य सत्संगी भी लाभान्वित होते हैं।
गुरु महाराज के महाप्रयाण के बाद मैंने अपनी आँखों से देखा कि उनके सुयोग्य उत्तराधिकारी महर्षि संतसेवी परमहंस जी स्वयं इन्हें कितना मान देते थे | साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर जब सत्संग प्रशाल में महर्षि संतसेवी जी का आगमन होता और उस समय इनका प्रवचन चल रहा होता और माइक महर्षि संतसेवी जी के समक्ष लाया जाता, तो वे अपना प्रवचन शुरू करने के पहले इनसे कहते “पुराइये” (पूरा कीजिये) और इनके आगे माइक रखने का निर्देश देते | समय-समय पर इन्हें बुलाकर इनसे इनका हालचाल एवं कुशल समाचार पूछा करते| कभी-कभी अपने चौके में इन्हें हठात्, इनके मना करने के बावजूद, भोजन करवाते |
आज पूज्य शाही बाबा और पूज्य दलबहादुर बाबा हमारे मध्य नहीं हैं| वर्तमान में ये ९०वें वर्ष में, संभवतः, सबसे उम्रदराज शिष्य हैं गुरुमहाराज के | सरलता और प्रगल्भता एक साथ देखी जा सकती हैं इनमें | मान का जरा सा भी लोभ नहीं | लोगों ने इन्हें उपाधि विशेष (महर्षि) से नवाजना चाहा तो इन्होंने दृढ़तापूर्वक मना कर दिया | जब ये हँसते हैं तो प्रतीत होता है मानो एक निर्दोष शिशु किलकारियां भर रहा हो | छोटे-छोटे बच्चे इनके सान्निध्य में एक अजीब-सी सहजता महसूस करते हैं और अति शीघ्र इनसे घुल-मिल जाते हैं | स्निग्घता ऐसी कि इनके सामीप्य में आकर आश्वस्तता का अनुभव होता है | अपनी इस आयु में भी अध्ययन और लेखन के प्रति इनका लगाव और उत्साह जरा भी कम नहीं हुआ है | लगभग बीस पुस्तकें लिख चुकने के बाद भी इनका जोश बिलकुल वैसा ही है जैसे ये अपने पहली रचना लिखने जा रहे हों | इनकी एक पुस्तक “विन्दु-नाद ध्यान” का मराठी और अंग्रेजी में अनुवाद हो चुका है | एक अन्य पुस्तक “नवधा भक्ति” का मराठी अनुवाद भी शीघ्र ही प्रकाशित होने को तैयार है | अभी हाल ही में, इन्होंने अपने गुरु महाराज की जीवनी "महर्षि मेँहीँ चरितामृत" लिखी है| और कितनी अच्छी बात है ये! आदरणीय डॉक्टर सत्यदेव साह जी द्वारा जब गुरु महाराज की जीवनी लिखी गयी तो गुरु महाराज सशरीर विद्यमान थे और उनके जीवन का एक हिस्सा रह गया था जिसके बारे में कुछ नहीं लिखा गया था | इनकी ये पुस्तक न मात्र एक प्रामाणिक दस्तावेज है अपितु उस अभाव की पूर्ति भी करेगी | इन्हें कोटिशः धन्यवाद! गुरु महाराज के महत्वपूर्ण उपदेशों को इन्होंने "महर्षि मेँहीँ गीता" के रूप में संकलित किया। परमाराध्य गुरु महाराज के सुयोग्य शिष्य एवं उत्तराधिकारी महर्षि संतसेवी परमहंस के जीवन के उल्लेखनीय पहलुओं को एकत्र कर उनकी संक्षिप्त जीवनी भी लेखनीबद्ध की। इनकी प्रथम पुस्तक "संतमते की बातें" संतमत के सार सिद्धान्तों एवं शिक्षाओं का अद्भुत् संकलन है। गुरु और गुरु दीक्षा के महत्त्व को रेखांकित करते हुए इन्होंने "बन्दौं गुरु पद कञ्ज" नामक विलक्षण पुस्तक की रचना की। "नवधा-भक्ति" नाम्नी पुस्तिका में इन्होंने सन्तमत साधना पद्धति का उल्लेखनीय वर्णन किया है। "सत्संग-भजनावली" इनके द्वारा निष्पन्न प्रमुख संतों के गेय भजनों का संकलन है।
इस वृद्धावस्था में इनके कानों ने काम करना बंद कर दिया है | पर इससे बिल्कुल बेखबर इन्होंने अपने शरीर को झोंक दिया है उस महायज्ञ में, उस उदात्त उद्देश्य हेतु जो संतों का सहज स्वाभाविक गुण होता है – “संत सहहिं दुःख परहित लागी”| ये शरीर यदि लोकोपकार में काम आ सके तो इससे बेहतर उपयोग इसका और क्या हो सकता है – सड़ना और झड़ना तो इसने यूँ भी है! आज हम सबों का अपार और अप्रतिम सौभाग्य है कि ऐसे महामानव के दर्शन, स्पर्शन, उपदेशन हमें सरलता से प्राप्त हो रहे हैं! परमाराध्य गुरु महाराज के त्रयलोक पावनकारी पाद-पद्मों में यही विनती सच्चे हृदय से कि इन्हें अच्छी सेहत और दीर्घ आयु एवं अक्षय यश प्रदान करें कि इनका संसर्ग व उपदेश अधिक से अधिक समय तक हमें तथा समस्त मानवता को प्राप्त हो सके | जय गुरु ! जय गुरु ! जय गुरु
Author : Swami Swarupanand Baba
No comments:
Post a Comment